अयोध्या
5 जुलाई 2005 – यह तारीख अयोध्या की स्मृति में हमेशा के लिए दर्ज हो गई। एक ऐसा दिन जब आतंकवादियों ने भारत की आत्मा माने जाने वाले श्रीराम जन्मभूमि को लहूलुहान करने की कोशिश की। लेकिन यह दिन एक और वजह से ऐतिहासिक बन गया — क्योंकि उसी दिन भारत के जवानों ने यह साबित कर दिया कि भगवान श्रीराम की धरती पर किसी भी आतंकी विचारधारा की कोई जगह नहीं है। उस दिन प्रभु राम की कृपा से पांचों आतंकी मारे गए, और मंदिर को एक खरोंच तक नहीं आने दी गई।
सुबह का वक्त था, मंगलवार का दिन। अयोध्या में हजारों श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुंचे थे। रामलला का दर्शन करने वालों की भीड़ रोज की तरह मंदिर के आसपास उमड़ रही थी। तभी एक गाड़ी तीव्र गति से मंदिर परिसर की ओर बढ़ती है। यह एक किराए की गाड़ी थी, जिसमें पांच आतंकी सवार थे। मंदिर के नजदीक पहुंचते ही उन्होंने उस गाड़ी को विस्फोटक से उड़ा दिया। तेज धमाका हुआ और एक स्थानीय गाइड की मौके पर ही मौत हो गई। धमाके के बाद वहां भगदड़ मच गई। श्रद्धालु चीखते-चिल्लाते इधर-उधर भागने लगे। उस गाड़ी का उपयोग कर आतंकियों ने लोहे की फेंसिंग को तोड़ते हुए मंदिर की ओर बढ़ने की कोशिश की। उनका मकसद साफ था—रामलला की जन्मभूमि को लहूलुहान करना और धार्मिक उन्माद फैलाना।
परंतु उन आतंकियों की यह मंशा राम की नगरी में पूरी नहीं हो सकी। मंदिर की सुरक्षा में तैनात उत्तर प्रदेश पुलिस की पीएसी की एक टीम वहां पहले से तैनात थी, जिसकी अगुवाई कर रहे थे कमांडर चंद्र विजय सिंह। जैसे ही धमाके की आवाज़ आई, उन्होंने तुरंत स्थिति की गंभीरता को समझा और अपनी यूनिट को निर्देशित किया। उन्होंने पास की दुराही कुआं पर स्थित एक मकान की छत से मोर्चा संभाला। उनके साथ चार और बहादुर जवान थे। आतंकियों के पास थे अत्याधुनिक हथियार – AK-47, ग्रेनेड, नाइट विज़न डिवाइस और उच्च श्रेणी के विस्फोटक। दूसरी ओर, पीएसी के जवानों के पास सीमित संसाधन थे। लेकिन उनके पास जो था, वह आतंकियों के पास नहीं था — दृढ़ इच्छाशक्ति, आस्था और मातृभूमि की रक्षा का प्रण।
करीब दो घंटे तक जबर्दस्त मुठभेड़ चली। गोलियों की आवाज़ पूरे इलाके में गूंज रही थी। अयोध्या की गलियों में डर की सिहरन दौड़ गई थी। दुकानों के शटर गिरने लगे, घरों के दरवाज़े बंद हो गए। लेकिन उन बंद दरवाजों के पीछे भी हर कोई अपने जवानों की सफलता की कामना कर रहा था। चंद्र विजय सिंह और उनकी टीम ने साहस दिखाते हुए लगातार जवाबी फायरिंग की और महज 50 मिनट के भीतर तीन आतंकियों को मौत के घाट उतार दिया। बाकियों को भी खोज-खोजकर मारा गया। अंततः सारे पांचों आतंकी मारे गए और कोई भी रामलला तक नहीं पहुंच पाया।
इस मुठभेड़ में चंद्र विजय सिंह और उनकी टीम का प्रदर्शन अतुलनीय रहा। उन्होंने सिर्फ गोलियों से नहीं, अपने आत्मबल से इस युद्ध को जीता। जब उनसे इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने नम आंखों से सिर्फ इतना कहा – “जो जगत के दाता हैं, उनके ऊपर हमला करना आतंकियों की सबसे बड़ी भूल थी। वही उनकी हार का कारण बना। हमने सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया, विजय श्रीराम की कृपा से मिली।”
इस हमले की जड़ें जम्मू-कश्मीर तक जुड़ी थीं। बाद में हुई जांच में यह स्पष्ट हुआ कि इस हमले की साजिश रची गई थी, और चार लोगों को पकड़ा गया, जिन पर अदालत में मुकदमा चला और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। यह हमला न सिर्फ एक धार्मिक स्थल पर हमला था, बल्कि भारत की सांस्कृतिक विरासत और सभ्यता पर हमला था। और इस हमले को नाकाम करना केवल एक सुरक्षा जिम्मेदारी नहीं, एक आध्यात्मिक युद्ध भी था — जिसमें धर्म, साहस और राष्ट्रभक्ति एक साथ लड़े।
जब यह घटना हो रही थी, तब चंद्र विजय सिंह के परिवार की भी सांसें अटकी हुई थीं। उनके परिजनों ने बार-बार उनसे संपर्क करने की कोशिश की, और जब एक बार उन्होंने फोन उठाया, तो बस इतना कहा – “मुठभेड़ जारी है।” इसके बाद उनके घर में सन्नाटा छा गया। सभी बस दुआएं कर रहे थे। जब शाम को खबर आई कि सभी आतंकी मारे जा चुके हैं, और चंद्र विजय सिंह सकुशल हैं, तो पूरे गांव ने राहत की सांस ली। घर-घर में दीप जलाए गए, और उन्हें वीर कहकर सम्मानित किया गया।
आज इस घटना को 20 साल हो चुके हैं। वह रामलला का अस्थायी मंदिर अब भव्य और दिव्य श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के रूप में बन चुका है। जब चंद्र विजय सिंह मंदिर दर्शन के लिए जाते हैं, तो उनकी आंखें नम हो जाती हैं। वे गर्व से कहते हैं – “जिस स्थान को हमने अपने खून-पसीने से बचाया, वह आज करोड़ों लोगों की श्रद्धा का केंद्र बन चुका है। यह हमारी सबसे बड़ी विजय है।”
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