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इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने एक महत्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव वाला फैसला सुनाते हुए यह स्पष्ट किया है कि सरकारी सेवा में कार्यरत पति और पत्नी को एक ही जिले में तैनात करना न तो कोई मौलिक अधिकार है और न ही कोई बाध्यकारी नियम। यह निर्णय न्यायमूर्ति अब्दुल मोईन की एकल पीठ ने पारित किया, जो उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में कार्यरत पर्यावरण अभियंता अमित मिश्रा की सेवा संबंधी याचिका पर आधारित था। याचिकाकर्ता ने कोर्ट में यह दलील दी थी कि उनका स्थानांतरण जून 2022 में लखनऊ से कानपुर किया गया, जबकि उनकी पत्नी पहले से ही कानपुर में सरकारी सेवा में कार्यरत हैं। उन्होंने राज्य सरकार की ट्रांसफर नीति 2024-25 का हवाला देते हुए कहा कि यदि पति और पत्नी दोनों सरकारी कर्मचारी हों तो उन्हें एक ही जिले में तैनात किया जाना चाहिए।
हालांकि, कोर्ट ने उनके इस तर्क को खारिज करते हुए दो टूक शब्दों में कहा कि ट्रांसफर नीति में 'यथासंभव' (As far as possible) शब्द का प्रयोग यह दर्शाता है कि यह कोई अनिवार्य या बाध्यकारी शर्त नहीं है। यह शब्द अपने आप में ही लचीलापन और परिस्थितियों के अनुसार निर्णय लेने का विवेक प्रदान करता है। कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि कर्मचारी का तबादला नियोक्ता का प्रशासकीय अधिकार है, जिसे कार्य की आवश्यकता, जनहित, प्रशासनिक सुविधा और संस्थागत संतुलन के आधार पर किया जाता है। किसी भी कर्मचारी को यह अधिकार प्राप्त नहीं है कि वह यह मांग करे कि उसे केवल उसी स्थान पर तैनात किया जाए जहाँ उसका जीवनसाथी कार्यरत है, जब तक कि उसके पक्ष में कोई विशेष या संवेदनशील परिस्थिति प्रमाणित न हो।
अदालत ने अपने फैसले में यह भी उल्लेख किया कि इससे पूर्व दिसंबर 2023 में दिए गए एक अन्य निर्णय में भी यही बात दोहराई गई थी, जब बेसिक शिक्षा विभाग में सहायक अध्यापकों ने यह मांग की थी कि पति-पत्नी दोनों को एक ही स्थान पर तैनात किया जाए। उस समय भी कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि यह कोई कानूनी अधिकार नहीं है और संबंधित विभाग इस पर केवल सहानुभूति और प्रशासकीय दृष्टिकोण से विचार कर सकता है। जब तक किसी तबादले में जानबूझकर उत्पीड़न, भेदभाव, या सेवा नियमों का उल्लंघन नहीं किया गया हो, तब तक न्यायालय उसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा।
इस निर्णय से एक बात और स्पष्ट होती है कि सरकार की ट्रांसफर नीतियों का उद्देश्य कर्मचारियों की सुविधा के साथ-साथ प्रशासनिक कार्यों को सुचारु रूप से संचालित करना होता है। 'यथासंभव' जैसे शब्दों का अर्थ ही यह होता है कि नीति को लागू करते समय लचीलापन बरता जा सकता है और यह बाध्यकारी नहीं होता। यदि कोर्ट इस तरह के स्थानांतरण को रोकने लगे तो इससे न केवल विभागीय स्वायत्तता पर असर पड़ेगा, बल्कि पूरे प्रशासनिक ढांचे की कार्यक्षमता भी प्रभावित होगी।
इस फैसले के माध्यम से हाईकोर्ट ने यह मजबूत संदेश दिया है कि व्यक्तिगत परिस्थितियों से ऊपर प्रशासनिक अनुशासन और सेवा की आवश्यकता प्राथमिकता होनी चाहिए। यह निर्णय न केवल संबंधित याची के मामले को प्रभावित करता है, बल्कि भविष्य में भी इसी प्रकार के तबादला विवादों में कानूनी दिशा और संतुलन स्थापित करने का काम करेगा।
सरकारी कर्मचारियों को यह समझना होगा कि सेवा में रहते हुए उन्हें अपनी व्यक्तिगत सुविधा से ऊपर संस्थागत जिम्मेदारियों को प्राथमिकता देनी होगी। कोर्ट के इस फैसले को एक नजीर के तौर पर देखा जा रहा है जो आने वाले समय में तबादला संबंधी नीतियों की व्याख्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
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