उन्नाव | संवाददाता विशेष
उन्नाव जिले के परियर गंगा तट पर, जहां लोग अपने प्रियजनों को अंतिम विदाई देने पहुंचते हैं, वहां खुद को बचाने की कोई जगह नहीं। 44 डिग्री सेल्सियस की झुलसा देने वाली गर्मी में श्मशान में पहुंचने वाले लोग ट्रैक्टर-ट्रॉली की छांव में बैठकर धूप से जान बचाने को मजबूर हैं। किसी के कंधे पर अपनों की अर्थी है, तो किसी की पीठ पर जिम्मेदार प्रशासन की बेरुखी का बोझ।
छांव नहीं, सुविधा नहीं – सिर्फ़ तपती ज़मीन और सिस्टम की चुप्पी
परियर घाट पर श्मशान घाट की हालत देखकर दिल दहल उठता है। ना पक्की छत, ना बैठने की व्यवस्था और ना ही पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं। शोकाकुल परिवारों को वहां बैठने की भी जगह नहीं मिल रही — गर्म मिट्टी, रेत और धुआं ही साथ है।
वृद्ध, महिलाएं और छोटे बच्चे – सभी तपती धूप में झुलसते नजर आते हैं। परिजन जब तक अपने मृतक का संस्कार करते हैं, तब तक खुद का शरीर भी तपकर लहूलुहान हो जाता है — बाहर से नहीं, भीतर से।
ट्रॉली की छांव ही ‘शासन की छाया’ है?
स्थिति ऐसी है कि ट्रैक्टर या ट्रॉली के नीचे छांव लेना लोगों की मजबूरी बन गई है। जैसे शासन-प्रशासन ने कह दिया हो — "जो आया है, अपनी व्यवस्था खुद करे!"
प्रशासनिक संवेदनहीनता की पराकाष्ठा
शव का संस्कार या जीवित का अपमान?
श्मशान घाट वो जगह है जहां हर व्यक्ति एक दिन आता है, चाहे राजा हो या रंक। लेकिन परियर घाट की स्थिति देखकर लगता है कि यहां अंतिम संस्कार नहीं, बल्कि जीवित लोगों का भी अपमान हो रहा है।