ʺजब लैंडस्लाइड ने रोक दिया था भागीरथी का बहाव और मच गई तबाही: 47 साल पुरानी कनोडिया बाढ़ की दर्दनाक कहानी फिर ताज़ा हुई धराली के हादसे सेʺ


देश दुनियां

उत्तराखंड के उत्तरकाशी ज़िले का इतिहास और भूगोल दोनों ही प्रकृति की सुंदरता और उसके रौद्र रूप की मिसालें पेश करते हैं। यह इलाका जहां एक ओर देवभूमि के रूप में पूजनीय है, वहीं दूसरी ओर यह भयानक प्राकृतिक आपदाओं का केंद्र भी रहा है। खासकर भागीरथी नदी और उससे जुड़ी घाटी, जहां भारी बारिश, भूस्खलन और बर्फबारी जैसे मौसमीय बदलाव अक्सर भयावह रूप ले लेते हैं। साल 1978 में कनोडिया गांव में आई भीषण बाढ़ ने इस शांत पहाड़ी क्षेत्र को हिला कर रख दिया था। और अब, 5 अगस्त 2025 को धराली गांव में आई बादल फटने की घटना ने फिर से वही डरावनी यादें ताज़ा कर दीं, जब भागीरथी के रास्ते में आए लैंडस्लाइड ने पूरे क्षेत्र को तबाही की गर्त में धकेल दिया था।

कनोडिया 1978: विनाश की पहली लहर

1978 की वो रात, जब कनोडिया गांव समेत पूरे क्षेत्र में मूसलधार बारिश हो रही थी, किसी को यह अंदाज़ा नहीं था कि आने वाला दिन उनके जीवन की दिशा ही बदल देगा। बारिश के चलते पहाड़ों में बड़े स्तर पर भूस्खलन हुआ। भारी मलबा सीधे भागीरथी नदी में जा गिरा। यह मलबा इतना विशाल था कि उसने नदी के बहाव को पूरी तरह रोक दिया। भागीरथी, जो आमतौर पर कलकल बहती है, अब एक विशाल झील में तब्दील हो चुकी थी। पानी रुकता गया, उसका स्तर बढ़ता गया और आस-पास की भूमि पर दबाव भी। यह स्थिति कई घंटों तक बनी रही, लेकिन जैसे ही पानी का दबाव अस्थायी रूप से बने इस मलबे के बांध पर बढ़ा, वह टूट गया। इसके बाद जो हुआ, वह विनाश की एक ऐसी गाथा है जो आज भी लोगों के रोंगटे खड़े कर देती है।

बांध के टूटते ही भागीरथी ने अपने पूरे वेग और उफान के साथ निचले इलाकों की ओर धावा बोल दिया। गांव के गांव बह गए। लोग नींद में ही मौत की गोद में समा गए। कई लोग जो अपने खेतों या घरों में थे, उन्हें संभलने का मौका तक नहीं मिला। पुल, सड़कें, बिजली के खंभे, खेत-खलिहान—सब कुछ इस बाढ़ में बह गए। सरकारी आंकड़ों में दर्जनों मौतें दर्ज हुईं, लेकिन प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार मृतकों की संख्या कहीं अधिक थी। यह त्रासदी न सिर्फ मानव जनजीवन के लिए, बल्कि स्थानीय पर्यावरण और समाज की संरचना के लिए भी गहरा घाव बन गई।

धराली 2025: वही कहानी, नया दौर

47 साल बाद, ठीक उसी तारीख को, उत्तरकाशी के धराली गांव में बादल फटने की खबर ने लोगों को फिर से दहशत में डाल दिया। भारी बारिश के चलते आए फ्लैश फ्लड में अब तक 4 लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है, जबकि लगभग 50 लोग लापता बताए जा रहे हैं। कई मकान बह गए, खेत तबाह हो गए, और सड़कों का संपर्क पूरी तरह टूट गया है। धाराओं का रुख बदल गया है, जिससे गांवों में पानी भर गया है और लोग घरों में कैद हो गए हैं। स्थिति इतनी भयावह है कि रेस्क्यू टीमें भी सही ढंग से प्रभावित इलाकों तक नहीं पहुंच पा रहीं। हेलीकॉप्टरों की मदद ली जा रही है, लेकिन मौसम और भूगर्भीय स्थिति रास्ते में बड़ी रुकावट बन रही है।

बचाव अभियान लगातार जारी है, लेकिन रास्ते टूटे हुए हैं, बिजली बंद है और संचार माध्यम भी बाधित हैं। प्रभावित लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया जा रहा है, लेकिन बारिश अभी भी रुक-रुक कर हो रही है, जिससे राहत कार्यों में दिक्कतें आ रही हैं। राज्य सरकार ने NDRF और SDRF की टीमें भेजी हैं और मुख्यमंत्री स्वयं स्थिति पर नजर बनाए हुए हैं। परंतु यह सवाल उठता है कि क्या हम ऐसे आपदाओं के लिए पहले से तैयार हैं?

क्या 47 साल में हमने कुछ सीखा?

कनोडिया और धराली—दो अलग गांव, दो अलग समय, लेकिन प्रकृति का एक ही चेतावनी भरा संदेश। हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता को नजरअंदाज करना अब भारी पड़ रहा है। भागीरथी जैसी नदियों का अस्थायी रुकना, और फिर उसके बाद उनका फूट पड़ना, सीधे तौर पर दिखाता है कि पहाड़ों में जल प्रवाह और भूगर्भीय हलचल किस कदर विनाश ला सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों में हमने देखा है कि किस तरह अनियोजित निर्माण, पेड़ों की कटाई, पहाड़ों की खुदाई और जलवायु परिवर्तन की वजह से प्राकृतिक आपदाएं लगातार बढ़ रही हैं।

बड़े बांधों और सड़कों के निर्माण में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी, लोकल चेतावनियों की अनदेखी, और पूर्व चेतावनी प्रणाली की सीमित पहुंच, इन आपदाओं को और भी भयावह बना रही है। क्या यह समय नहीं है जब हम न सिर्फ राहत और पुनर्वास की बात करें, बल्कि इससे पहले की रोकथाम पर भी गंभीरता से काम करें

धरती का यह इलाका केवल धार्मिक दृष्टि से नहीं, बल्कि भूगर्भीय रूप से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। भागीरथी जैसी नदियां जीवनदायिनी तो हैं, पर जब उनका प्रवाह रुकता है या मोड़ता है, तो वे विनाश का कारण भी बन सकती हैं। कनोडिया की बाढ़ और धराली का हादसा हमें बार-बार चेतावनी देता है कि हम प्रकृति के साथ तालमेल बैठाएं, उसके विरुद्ध नहीं चलें।

हमारी प्रौद्योगिकी बढ़ी है, लेकिन हमारी चेतना उतनी नहीं बढ़ी। जब तक हम सतत विकास और प्राकृतिक संतुलन को नहीं समझेंगे, तब तक हर साल ऐसे हादसे दोहराए जाते रहेंगे। यह केवल रिपोर्ट्स या आंकड़ों की बात नहीं है, यह उन सैकड़ों परिवारों की त्रासदी है जिनका सब कुछ एक झटके में खत्म हो गया। इसलिए हमें अब सिर्फ मुआवजे और घोषणाओं से नहीं, बल्कि ठोस कार्यों और दीर्घकालिक योजनाओं से आगे बढ़ना होगा।

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