विधि
मामले की शुरुआत वर्ष 2022 में हुई थी जब एक तलाकशुदा दंपति के बीच बच्चे की कस्टडी को लेकर कानूनी संघर्ष शुरू हुआ। तलाक के चार साल बाद मां ने दूसरी शादी कर ली थी और उस परिवार में अब उसका एक और बच्चा भी है। इस स्थिति को आधार बनाकर पिता ने फैमिली कोर्ट में याचिका दाखिल की कि बच्चे की देखरेख उसके पास होनी चाहिए, क्योंकि मां अब एक नए परिवार में व्यस्त है और बच्चे को पर्याप्त ध्यान नहीं दे पा रही। फैमिली कोर्ट ने इस दलील को स्वीकार करते हुए बच्चे की कस्टडी पिता को सौंप दी। यह आदेश बाद में केरल हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा और अंततः सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले को मंजूरी दी। परिणामस्वरूप, बच्चा अपनी मां से अलग होकर पिता के पास चला गया।
हालांकि, इस आदेश के बाद बच्चे की मानसिक स्थिति बेहद खराब हो गई। उसे वेल्लोर स्थित क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के मानसिक रोग विभाग में भर्ती कराना पड़ा। वहां की मेडिकल रिपोर्ट में सामने आया कि बच्चा गंभीर अवसाद, चिंता और भावनात्मक अस्थिरता से जूझ रहा है। डॉक्टरों की रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया कि न्यायिक आदेश ने बच्चे के मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। यह रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रखी गई, जिसके बाद मामला एक बार फिर सुना गया।
सुनवाई के दौरान जब बच्चा खुद अदालत में उपस्थित होकर अपनी आपबीती सुनाने लगा, तो पूरा कोर्ट रूम स्तब्ध रह गया। उसने कहा कि वह अपनी मां के साथ रहना चाहता है, क्योंकि वह ही उसका असली सहारा है। उसके शब्दों में डर, अकेलापन, और भावनात्मक पीड़ा साफ झलक रही थी। बच्चे ने न्यायधीशों को यह भी बताया कि वह जिस घर में रह रहा है, वहां वह खुद को बाहरी, अनचाहा और असहज महसूस करता है। उसने यह भी कहा कि मां से अलग होना उसके लिए ऐसा था जैसे उसकी आत्मा को उसके शरीर से अलग कर दिया गया हो।
बच्चे की इस भावनात्मक अपील और मेडिकल रिपोर्ट को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ — जिसमें जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस प्रसन्ना बी वराले शामिल थे — ने माना कि पूर्व आदेश में मानवीय दृष्टिकोण की कमी रह गई थी। पीठ ने कहा कि "कानूनी आदेशों को बच्चों की मन:स्थिति और विकास की वास्तविकता से काटकर नहीं देखा जा सकता। हम एक न्यायिक भूल को स्वीकार करते हैं और बच्चे के सर्वोत्तम हित में निर्णय को संशोधित करते हैं।"
कोर्ट ने कहा कि मां की दूसरी शादी या नए बच्चे का जन्म कस्टडी के अधिकार को प्रभावित नहीं करते, जब तक यह साबित न हो कि इससे बच्चे की परवरिश पर बुरा असर पड़ा है। अदालत ने जोर देकर कहा कि बच्चे के लिए भावनात्मक सुरक्षा और अपनापन अधिक महत्वपूर्ण हैं बनिस्बत किसी कानूनी सिद्धांत के। कोर्ट ने यह भी कहा कि अदालतों को यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि एक 12 साल का बच्चा किसी अजनबी वातावरण को सहज रूप से स्वीकार कर लेगा।
इस ऐतिहासिक फैसले के जरिए सुप्रीम कोर्ट ने न केवल अपनी गलती को स्वीकार किया, बल्कि एक मजबूत संदेश भी दिया कि न्याय केवल कानूनी सिद्धांतों का पालन नहीं, बल्कि मानवता, करुणा और संवेदनशीलता पर भी आधारित होना चाहिए। यह मामला भारतीय न्यायपालिका की जीवंतता और आत्मविश्लेषण की क्षमता का प्रमाण है, जहां उच्चतम न्यायालय भी अपने पुराने आदेश को संशोधित करने में हिचक नहीं करता, यदि इससे किसी निर्दोष और मासूम की भलाई सुनिश्चित हो सके।
इस फैसले ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि बच्चों की कस्टडी से जुड़े मामलों में 'बेस्ट इंटरेस्ट ऑफ द चाइल्ड' (बच्चे का सर्वोत्तम हित) ही अंतिम मापदंड होना चाहिए — चाहे वह आदेश किसी भी स्तर की अदालत ने दिया हो। अदालतों को संवेदनशील रहकर यह देखना चाहिए कि कहीं उनका निर्णय किसी मासूम की भावनाओं, मानसिक स्थिति और विकास को कुचल तो नहीं रहा।
अंततः, सुप्रीम कोर्ट का यह कदम एक अदालती मिसाल बन गया है, जहां एक बच्चे की मासूम आवाज ने देश की सबसे बड़ी अदालत को भी भावुक कर दिया और उस आवाज को सुनकर कानून ने खुद को मानवीय रूप से ढाल लिया। यह कहानी सिर्फ न्याय का नहीं, बल्कि एक इंसानियत से भरे न्याय का भी उदाहरण है।
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