ʺवाराणसी में पत्रकारों पर एफआईआर, अमिताभ ठाकुर ने पुलिस कार्यशैली पर उठाए सवाल: पत्रकारिता पर हमले के विरोध में उठी आवाजेंʺ

 


लखनऊ

उत्तर प्रदेश के धार्मिक और सांस्कृतिक नगर वाराणसी से एक चौंकाने वाला मामला सामने आया है, जिसने प्रदेश में पत्रकारिता की स्वतंत्रता और पुलिस की कार्यप्रणाली को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। मामला तब प्रकाश में आया जब वाराणसी के लंका थाना क्षेत्र अंतर्गत संकट मोचन चौकी प्रभारी द्वारा छह पत्रकारों पर दो मुकदमे दर्ज किए गए। यह एफआईआर एक वीडियो के आधार पर की गई, जिसमें एक व्यक्ति मालवीय जी की प्रतिमा पर चढ़ा हुआ संदिग्ध गतिविधियों में लिप्त दिखाई दे रहा है। इस वीडियो को स्थानीय पत्रकारों ने सार्वजनिक मंच पर उजागर कर प्रशासन का ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश की, ताकि उस व्यक्ति के खिलाफ उचित कार्रवाई हो सके। परन्तु चौकी इंचार्ज ने इस सरोकारी कार्य को ‘द्वेष फैलाने’ और ‘समाज को उकसाने’ की कार्रवाई मानते हुए पत्रकारों पर आईटी एक्ट सहित गंभीर धाराओं में मुकदमा दर्ज कर दिया। इस मामले ने मीडिया जगत में हलचल मचा दी और इसे सीधे-सीधे पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर हमला माना जाने लगा।

इस पूरे घटनाक्रम के विरोध में आजाद अधिकार सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमिताभ ठाकुर सामने आए हैं। उन्होंने प्रदेश के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक (DGP) को एक आधिकारिक पत्र भेजकर मामले की निष्पक्ष जांच कराने, एफआईआर को तत्काल निरस्त करने तथा दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कड़ी विभागीय कार्रवाई की मांग की है। अपने पत्र में ठाकुर ने लिखा है कि जिस वीडियो को एफआईआर का आधार बनाया गया, उसमें स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि मालवीय जी की प्रतिमा पर चढ़ा व्यक्ति संदिग्ध अवस्था में था और पत्रकारों ने केवल प्रशासन का ध्यान इस ओर आकृष्ट करते हुए कार्रवाई की मांग की थी, जो उनका कर्तव्य और संवैधानिक अधिकार भी है। उन्होंने यह भी कहा कि चौकी इंचार्ज द्वारा बिना किसी ठोस कारण और आधार के इस कार्य को 'समाज में तनाव फैलाने' की साजिश बताना पूरी तरह दुर्भावनापूर्ण और जनविरोधी है।

अमिताभ ठाकुर ने इसे उत्तर प्रदेश में बढ़ते पुलिसिया दमन और सत्ता के दबाव में कार्य करने वाली व्यवस्था का प्रतीक करार दिया। उन्होंने कहा कि पत्रकारों का काम जनहित में सवाल उठाना है और यदि उस पर एफआईआर दर्ज कर डराने की कोशिश की जाती है, तो यह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर सीधा हमला है। ठाकुर ने यह भी चेतावनी दी कि यदि पुलिस तंत्र को इस प्रकार निरंकुश रूप से पत्रकारों के विरुद्ध हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया, तो यह प्रदेश को एक तानाशाही और दमनात्मक शासन की ओर ले जाएगा, जहां सच बोलना अपराध बन जाएगा और सवाल उठाना गुनाह।

इस पूरे मामले में यह भी देखा गया है कि एफआईआर दर्ज करने में जिस तेजी और सख्ती का प्रदर्शन पुलिस ने किया, वही तत्परता संदिग्ध व्यक्ति की पहचान और उसके खिलाफ कार्रवाई में नहीं दिखाई दी। इससे आम जनमानस में यह भावना बलवती हुई है कि पुलिस का ध्यान अपराधियों पर नहीं, बल्कि उन्हें उजागर करने वालों को डराने पर है। पत्रकार संगठनों ने भी इस घटनाक्रम की निंदा करते हुए कहा है कि यदि इस तरह से मीडिया को चुप कराने का प्रयास किया गया तो आने वाले समय में लोकतंत्र कमजोर होगा और समाज में अराजकता बढ़ेगी।

अब यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रदेश सरकार और पुलिस महकमा इस पूरे प्रकरण में क्या रुख अपनाते हैं — क्या पत्रकारों पर दर्ज मुकदमे वापस लिए जाएंगे? क्या जिम्मेदार पुलिस अधिकारी पर कार्रवाई होगी? या फिर यह मामला भी अन्य विवादों की तरह फाइलों में दबकर रह जाएगा? यह मामला सिर्फ पत्रकारों का नहीं, बल्कि हर उस नागरिक का है जो सवाल उठाने का साहस रखता है।

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