तेलंगाना
तेलंगाना हाईकोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर एक अत्यंत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जो देश भर में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को सशक्त बनाने की दिशा में एक बड़ी कानूनी और सामाजिक पहल मानी जा रही है। कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि मुस्लिम महिला यदि अपने वैवाहिक संबंध को समाप्त करना चाहती है, तो उसे 'खुला' (Khula) के अधिकार का स्वतंत्र रूप से प्रयोग करने की छूट है और इसके लिए पति की सहमति या मंजूरी की कोई आवश्यकता नहीं है।
यह फैसला एक याचिका की सुनवाई के दौरान सामने आया, जिसमें एक मुस्लिम पुरुष ने दावा किया था कि उसकी पत्नी ने बिना उसकी जानकारी और अनुमति के एक गैर-सरकारी संस्था ‘सदा-ए-हक शरई काउंसिल’ के माध्यम से 'खुला' ले लिया। उसने इसे एकतरफा और अमान्य बताया था और इस पर आपत्ति जताते हुए फैमिली कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। लेकिन जब मामला हाईकोर्ट पहुंचा तो डिवीजन बेंच ने साफ कर दिया कि पत्नी को वैवाहिक जीवन समाप्त करने का अधिकार इस्लामी कानून और संविधान दोनों से प्राप्त है, और यह अधिकार किसी पुरुष की सहमति पर निर्भर नहीं हो सकता।
हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच, जिसमें जस्टिस मौसमी भट्टाचार्य और जस्टिस बी.आर. मधुसूदन राव शामिल थे, ने अपने निर्णय में कुरान की आयत 228 और 229 (सूरह अल-बक़रा, अध्याय 2) का हवाला देते हुए कहा कि इस्लामिक शरीयत के अनुसार, महिला को अपने वैवाहिक जीवन से असंतुष्ट होने की स्थिति में 'खुला' का विकल्प प्राप्त है। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह अधिकार महिला की गरिमा, आत्मसम्मान और उसके व्यक्तिगत जीवन के निर्णयों से जुड़ा हुआ है, जिस पर कोई और व्यक्ति नियंत्रण नहीं रख सकता — न परिवार, न समाज और न ही पति।
न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि वैवाहिक संबंधों में बराबरी और स्वतंत्रता अत्यंत आवश्यक है। जब पुरुष को 'तलाक' देने का विशेषाधिकार है, तो महिला को भी 'खुला' के माध्यम से विवाह समाप्त करने की समान स्वतंत्रता होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता, तो यह लैंगिक भेदभाव और असंवैधानिक नियंत्रण की श्रेणी में आएगा।
इस फैसले से यह स्पष्ट संकेत गया है कि धार्मिक परंपराएं अब आधुनिक संविधानिक मूल्यों से टकराव की स्थिति में नहीं रह सकतीं। मुस्लिम महिलाओं को लंबे समय से यह शिकायत रही है कि उन्हें विवाह और तलाक के मामलों में पर्याप्त न्याय नहीं मिलता, लेकिन यह फैसला न केवल उन्हें कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है, बल्कि उनके आत्मनिर्णय के अधिकार को भी मान्यता देता है।
यह फैसला भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता), अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) को पूरी तरह से प्रतिबिंबित करता है। कोर्ट ने दो टूक कहा कि मुस्लिम महिला यदि धार्मिक रीति-रिवाजों और शरीयत के अनुसार खुला लेने की प्रक्रिया अपनाती है, तो वह वैध मानी जाएगी और पति की अनुमति की आवश्यकता नहीं है।
सामाजिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह फैसला उन रूढ़िवादी धारणाओं को तोड़ता है जो अब तक महिलाओं को परंपरा और धार्मिक नियमों के नाम पर चुप रहने पर मजबूर करती थीं। यह निर्णय एक तरह से न्यायपालिका का महिला सशक्तिकरण की दिशा में बढ़ाया गया मजबूत कदम है, जो आने वाले समय में अन्य कानूनी फैसलों और सामाजिक सुधारों के लिए एक मिसाल बनेगा।
निष्कर्ष, तेलंगाना हाईकोर्ट का यह निर्णय न केवल मुस्लिम महिलाओं के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए एक स्पष्ट संदेश है — कि महिला की इच्छा और गरिमा सर्वोपरि है, और उसे अपने जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय लेने का पूरा अधिकार है, चाहे वह धर्म हो या कानून। यह फैसला नारी-सम्मान, संवैधानिक न्याय और सामाजिक बराबरी की दिशा में एक ऐतिहासिक मोड़ बनकर सामने आया है।
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