भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा है कि अगर मुकदमे के दौरान किसी पक्षकार की मृत्यु हो जाती है, तो इसकी जानकारी देना संबंधित वकील का अनिवार्य कर्तव्य है। यदि यह जानकारी अदालत से छुपाई जाती है और मुकदमा मृत व्यक्ति के नाम पर आगे बढ़ता है, तो ऐसा मुकदमा कानून की नजर में अमान्य माना जाएगा। यह फैसला सुप्रीम कोर्ट ने सिविल अपील संख्या 7706 ऑफ 2025 में सुनाया, जो कि विशेष अनुमति याचिका (सिविल) संख्या 1536 ऑफ 2015 से उत्पन्न हुआ था। न्यायालय ने कहा कि वकील न केवल अपने मुवक्किल का प्रतिनिधि होता है, बल्कि वह न्यायालय का एक अधिकारी भी होता है, और उसकी जिम्मेदारी है कि वह अदालत के समक्ष सत्य को रखे और न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता बनाए रखे।
इस मामले की पृष्ठभूमि काफी पुरानी है। विवाद की शुरुआत वर्ष 1984 में बिहार राज्य के गोपालगंज जिले में दाखिल टाइटल सूट संख्या 106 से हुई थी, जिसे बिनोद पाठक और अन्य वादियों ने दायर किया था। यह मामला भूमि विवाद से संबंधित था, जो समय के साथ उच्च न्यायालय और फिर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया। मुकदमे की लम्बी प्रक्रिया के दौरान प्रतिवादी पक्ष के कुछ व्यक्तियों की मृत्यु हो गई, किंतु उनके अधिवक्ताओं द्वारा यह महत्वपूर्ण जानकारी कोर्ट को नहीं दी गई। फलस्वरूप, मृत पक्षकारों के नाम पर ही कार्यवाही जारी रही, जो न्याय के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि मृत पक्षकार की ओर से मुकदमा जारी रखना, और न्यायालय को इस बारे में अंधेरे में रखना, न्यायिक प्रक्रिया के साथ जानबूझकर किया गया धोखा है। अदालत ने यह भी कहा कि ऐसे मामलों में यह अपेक्षा की जाती है कि वकील तुरंत मृत्यु की सूचना दें, ताकि विधिक उत्तराधिकारियों को पक्षकार बनाया जा सके और मुकदमे की प्रक्रिया कानूनी रूप से आगे बढ़े। न्यायालय ने इस मामले में अपीलकर्ता की याचिका को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि जानबूझकर मृत पक्षकार की जानकारी छुपाना न केवल वकील की आचरण संहिता का उल्लंघन है, बल्कि यह न्याय के साथ एक गम्भीर विश्वासघात भी है।
फैसले में अदालत ने यह भी दोहराया कि अदालत की कार्यवाही सत्यनिष्ठा और पारदर्शिता पर आधारित होनी चाहिए। यदि वकील या पक्षकार न्यायालय को गलत जानकारी देते हैं, या महत्वपूर्ण तथ्यों को छुपाते हैं, तो वह पूरी कार्यवाही दूषित हो जाती है। ऐसा कोई भी आदेश या निर्णय जो इस प्रकार की गलत सूचना के आधार पर पारित किया गया हो, उसे न्यायिक दृष्टिकोण से मान्यता नहीं दी जा सकती। यह फैसला एक मिसाल के रूप में सामने आया है और भविष्य में उन मामलों के लिए चेतावनी भी है, जहां पक्षकार या उनके अधिवक्ता न्यायालय को भ्रमित करने की कोशिश करते हैं।
यह निर्णय न केवल वकीलों के आचरण के मानकों को रेखांकित करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि भारतीय न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता और ईमानदारी की नींव को बनाए रखा जाए। सुप्रीम कोर्ट के इस स्पष्ट निर्देश से अब यह स्थापित हो गया है कि यदि कोई पक्षकार की मृत्यु हो जाती है और उसकी सूचना अदालत को नहीं दी जाती, तो उस मुकदमे की पूरी वैधता पर सवाल उठेगा और उसे खत्म भी किया जा सकता है। यह फैसला आने वाले समय में न्यायिक कार्यवाही की शुचिता को बनाए रखने में एक सशक्त आधार बनेगा।
#supremecourt