ʺविधायक सुधाकर सिंह: फरारी के आरोप, "कोर्ट बोली ‘फरार’, जनता बोली ‘नेता’– सुधाकर सिंह पर 10 जुलाई को टूटेगा फैसला बम!ʺ


मऊ

उत्तर प्रदेश की राजनीति एक बार फिर उस मोड़ पर आ खड़ी हुई है, जहां कानून और सत्ता के बीच का संतुलन सवालों के घेरे में है। मऊ जनपद की एमपी-एमएलए कोर्ट ने समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता और घोसी विधानसभा क्षेत्र से विधायक सुधाकर सिंह को 39 साल पुराने एक गंभीर आपराधिक मामले में 25 जुलाई 2023 को ‘भगोड़ा’ घोषित किया था। हैरानी की बात यह है कि अदालत के इस स्पष्ट आदेश के बावजूद सुधाकर सिंह न सिर्फ अपने क्षेत्र में खुलेआम रह रहे हैं, बल्कि वे दिन-प्रतिदिन सक्रिय राजनीतिक गतिविधियों में भाग ले रहे हैं, मंच साझा कर रहे हैं, लोगों से मुलाकात कर रहे हैं और क्षेत्रीय विकास से जुड़े कार्यों में भी अपनी भागीदारी दर्ज करा रहे हैं। यह विरोधाभासी स्थिति अब सियासी हलकों में तीखी बहस का विषय बन गई है और आने वाले समय में यह प्रकरण राजनीतिक रूप से तूल पकड़ सकता है

यह मामला वर्ष 1986 का है, जब मऊ जनपद के घोसी क्षेत्र में स्थित 400 केवी विद्युत उपकेंद्र पर एक उग्र प्रदर्शन हुआ था, जिसमें सरकारी कार्य में बाधा, तोड़फोड़, अफसरों से दुर्व्यवहार और शासकीय संपत्ति को नुकसान पहुँचाने जैसे गंभीर आरोप लगे थे। तब सुधाकर सिंह इस आंदोलन का हिस्सा बताए गए थे, और उनके खिलाफ दोहरीघाट पुलिस थाने में गंभीर धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया था। चूंकि उस समय मऊ जिला अस्तित्व में नहीं था, इसलिए मुकदमे की सुनवाई तत्कालीन आजमगढ़ जिला न्यायालय में शुरू हुई। बाद में जब मऊ जिला बना, तो संबंधित पत्रावली मऊ कोर्ट में स्थानांतरित कर दी गई। समय बीतता गया और मामला कानूनी प्रक्रिया में उलझता रहा, लेकिन 2023 में कोर्ट ने कार्रवाई तेज करते हुए सुधाकर सिंह को फरार घोषित कर दिया।

इस आदेश के बाद भी विधायक सुधाकर सिंह सार्वजनिक रूप से दिखाई देते रहे, वे विधानसभा क्षेत्र में पूरी तरह सक्रिय बने रहे, जिससे यह मामला मीडिया और जनता के बीच बहस का केंद्र बन गया। वहीं, विधायक ने 4 जून 2024 को मऊ के जिला जज के समक्ष निगरानी याचिका दाखिल की, जिसमें उन्होंने अपने अधिवक्ता वीरेंद्र बहादुर पाल के माध्यम से यह तर्क दिया कि उन्हें कोर्ट के समन या वारंट की कोई जानकारी नहीं दी गई, और न ही उन्हें आदेश की विधिवत तामील कराई गई, इसीलिए ‘भगोड़ा घोषित करने का आदेश रद्द’ किया जाए। इस पर अदालत ने स्थगन आदेश तो नहीं दिया, लेकिन अगली सुनवाई की तारीख 10 जुलाई 2025 तय की है।

दूसरी ओर, सरकारी अधिवक्ता अजय सिंह का कहना है कि विधायक को मुकदमे और आदेश की पूरी जानकारी थी, और उन्होंने स्वयं जिला विधिक सेवा प्राधिकरण के माध्यम से 2000 रुपये का अर्थदंड भी जमा किया है, जो इस बात का प्रमाण है कि वे कोर्ट प्रक्रिया से अनभिज्ञ नहीं थे। वहीं अब यह पूरा मामला एमपी-एमएलए विशेष कोर्ट में चल रहा है, क्योंकि विधायक निर्वाचित होने के बाद प्रकरण की पत्रावली वहीं स्थानांतरित कर दी गई है।

अब सबसे बड़ा सवाल यही उठ रहा है कि यदि कोई जनप्रतिनिधि कोर्ट द्वारा ‘फरार’ घोषित किया जा चुका है, तो वह खुलेआम राजनीतिक गतिविधियों में कैसे भाग ले सकता है? क्या कानून की प्रक्रिया से बचते हुए भी लोकतांत्रिक पद पर बने रहना संभव है? क्या सत्ताधारी और विपक्षी दल इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रखेंगे, या फिर आने वाले समय में यह एक राजनीतिक हथियार बनकर उभरेगा? 

10 जुलाई को इस याचिका पर होने वाली सुनवाई से यह तय होगा कि सुधाकर सिंह को इस मामले में कितनी राहत मिलती है या फिर उनका राजनीतिक भविष्य कानूनी शिकंजे में उलझता है। एक ओर कानून का आदेश है, दूसरी ओर एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि की सक्रियता – ऐसे में उत्तर प्रदेश की राजनीति में यह मामला आगामी चुनावों से पहले एक बड़े सियासी भूचाल की भूमिका भी निभा सकता है।

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